धाराओं 40 से 42 में वर्णित से भिन्न निर्णय आदि कब सुसंगत हैं (Judgments, etc., other than those mentioned in sections 40 to 42, when relevant)
Updated: Jan, 27 2021
Section 43 of Indian Evidence Act in Hindi and English
43. धाराओं 40 से 42 में वर्णित से भिन्न निर्णय आदि कब सुसंगत हैं -- धाराएँ 40, 41 और 42 में वर्णित से भिन्न निर्णय, आदेश या डिक्रियाँ विसंगत हैं जब तक कि ऐसे निर्णय, आदेश या डिक्री का अस्तित्व विवाद्यक तथ्य न हो या वह इस अधिनियम के किसी अन्य उपबंध के अन्तर्गत सुसंगत न हो।
दृष्टांत
(क) क और ख किसी अपमान लेख के लिए जो उनमें से हर एक पर लांछन लगाता है, ग पर पृथक्-पृथक् वाद लाते हैं। हर एक मामले में ग कहता है कि वह बात, जिसका अपमान-लेखीय होना अभिकथित है, सत्य है और परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि वह अधिसंभाव्यत: या तो हर एक मामले में सत्य है या किसी में नहीं।
ग के विरुद्ध क इस आधार पर कि ग अपना न्यायोचित साबित करने में असफल रहा नुकसानी की डिक्री अभिप्राप्त करता है। यह तथ्य ख और ग के बीच विसंगत है।
(ख) क अपनी पत्नी ग के साथ जारकर्म करने के लिए ख का अभियोजन करता है।
ख इस बात का प्रत्याख्यान करता है कि ग क की पत्नी है, किन्तु न्यायालय ख को जारकर्म के लिए दोषसिद्ध करता है।
तत्पश्चात् क के जीवनकाल में ख के साथ विवाह करने पर द्वि-विवाह के लिए ग अभियोजित की जाती है। ग कहती है कि वह क की पत्नी कभी नहीं थी।
ख के विरुद्ध दिया गया निर्णय ग के विरुद्ध विसंगत है।
(ग) ख का अभियोजन क इसलिए करता है कि उसने क की गाय चुराई है। ख दोषसिद्ध किया जाता है।
तत्पश्चात् क उस गाय के लिए जिसे ख ने दोषसिद्ध होने से पूर्व ग को बेच दिया था, ग पर वाद लाता है। ख के विरुद्ध वह निर्णय क और ग के बीच विसंगत है।
(घ) क ने ख के विरुद्ध भूमि के कब्जे की डिक्री अभिप्राप्त की है। ख का पुत्र ग परिणामस्वरूपक की हत्या करता है।
उस निर्णय का अस्तित्व अपराध का हेतु दर्शित करने के नाते सुसंगत है।
(ङ) क पर चोरी का और चोरी के लिए पूर्व दोषसिद्धि का आरोप है। पूर्व दोषसिद्धि विवाद्यक तथ्य होने के नाते सुसंगत है।
(च) ख की हत्या के लिए क विचारित किया जाता है। यह तथ्य कि ख ने क पर अपमान लेख के लिए अभियोजन चलाया था और क दोषसिद्ध और दण्डित किया गया था, धारा 8 के अधीन विवाद्यक तथ्य का हेतु दर्शित करने के नाते सुसंगत है।
43. Judgments, etc., other than those mentioned in sections 40 to 42, when relevant - Judgments, orders or decrees, other than those mentioned in sections 40, 41 and 42 are irrelevant, unless the existence of such judgment, order or decree, is a fact in issue, or is relevant under some other provision of this Act.
Illustrations
(a) A and B separately sue C for a libel which reflects upon each of them. C in each case says, that the matter alleged to be libellous is true, and the circumstances are such that it is probably true in each case, or in neither.
A obtains a decree against C for damages on the ground that C failed to make out his justification. The fact is irrelevant as between B and C.
(b) A prosecutes B for adultery with C, A's wife.
B denies that C is A's wife, but the Court convicts B of adultery.
Afterwards, C is prosecuted for bigamy in marrying B during A's lifetime. C says that she never was A's wife.
The judgment against B is irrelevant as against C.
(c) A prosecutes B for stealing, a cow from him. B is convicted.
A, afterwards, sues C for the cow, which B had sold to him before his conviction.
As between, A and C, the judgment against B is irrelevant.
(d) A has obtained a decree for the possession of land against B. C, B's son, i murders A in consequence.
The existence of the judgment is relevant, as showing motive for a crime.
(e) A is charged with theft and with having been previously convicted of theft.
The previous conviction is relevant as a fact in issue.
(f) A is tried for the murder of B. The fact that B prosecuted A for libel and that A was convicted and sentenced is relevant under section 8 as showing the motive for the fact in issue.