अध्याय 26: न्याय-प्रशासन पर प्रभाव डालने वाले अपराधों के बारे में उपबंध
340. धारा 195 में वर्णित मामलों में प्रक्रिया ---
(1) जब किसी न्यायालय की, उससे इस निमित्त किए गए आवेदन पर या अन्यथा, यह राय है कि न्याय के हित में यह समीचीन है कि धारा 195 की उपधारा (1) के खण्ड (ख) में निर्दिष्ट किसी अपराध की, जो उसे, यथास्थिति, उस न्यायालय की कार्यवाही में या उसके संबंध में अथवा उस न्यायालय की कार्यवाही में पेश की गई या साक्ष्य में दी गई दस्तावेज के बारे में किया हुआ प्रतीत होता है, जांच की जानी चाहिए तब ऐसा न्यायालय ऐसी प्रारंभिक जांच के पश्चात् यदि कोई हो, जैसी वह आवश्यक समझे--
(क) उस भाव का निष्कर्ष अभिलिखित कर सकता है;
(ख) उसका लिखित परिवाद कर सकता है;
(ग) उसे अधिकारिता रखने वाले प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को भेज सकता है;
(घ) ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष अभियुक्त के हाजिर होने के लिए पर्याप्त प्रतिभूति ले सकता है अथवा यदि अभिकथित अपराध अजमानतीय है और न्यायालय ऐसा करना आवश्यक समझता है तो, अभियुक्त को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास अभिरक्षा में भेज सकता है; और
(ङ) ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष हाजिर होने और साक्ष्य देने के लिए किसी व्यक्ति को आबद्ध कर सकता है।
(2) किसी अपराध के बारे में न्यायालय को उपधारा (1) द्वारा प्रदत्त शक्ति का प्रयोग, ऐसे मामले में जिसमें उस न्यायालय ने उपधारा (1) के अधीन उस अपराध के बारे में न तो परिवाद किया है और न ऐसे परिवाद के किए जाने के लिए आवेदन को नामंजूर किया है, उस न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जिसके ऐसा पूर्वकथित न्यायालय धारा 195 की उपधारा (4) के अर्थ में अधीनस्थ है।
(3) इस धारा के अधीन किए गए परिवाद पर हस्ताक्षर--
(क) जहाँ परिवाद करने वाला न्यायालय उच्च न्यायालय है वहाँ उस न्यायालय के ऐसे अधिकारी द्वारा किए जाएंगे, जिसे वह न्यायालय नियुक्त करे;
(ख) किसी अन्य मामले में, न्यायालय के पीठासीन अधिकारी द्वारा या न्यायालय के ऐसे अधिकारी द्वारा, जिसे न्यायालय इस निमित्त लिखित में प्राधिकृत करे, किए जाएंगे।
(4) इस धारा में “न्यायालय" का वही अर्थ है जो धारा 195 में है।
CHAPTER XXVI: PROVISIONS AS TO OFFENCES AFFECTING THE ADMINISTRATION OF JUSTICE
340. Procedure in cases mentioned in section 195 —
(1) When, upon an application made to it in this behalf or otherwise, any Court is of opinion that it is expedient in the interest of justice that an inquiry should be made into any offence referred to in clause (b) of sub-section (1) of section 195, which appears to have been committed in or in relation to a proceeding in that Court or, as the case may be, in respect of a document produced or given in evidence in a proceeding in that Court, such Court may, after such preliminary inquiry, if any, as it thinks necessary--
(a) record a finding to that effect;
(b) make a complaint thereof in writing;
(c) send it to a Magistrate of the first class having jurisdiction;
(d) take sufficient security for the appearance of the accused before such Magistrate, or if the alleged offence is non-bailable and the Court thinks it necessary so to do, send the accused in custody to such Magistrate; and
(e) bind over any person to appear and give evidence before such Magistrate.
(2) The power conferred on a Court by subsection (1) in respect of an offence may, in any case where that Court has neither made a complaint under sub-section (1) in respect of that offence nor rejected an application for the making of such complaint, be exercised by the Court to which such former Court is subordinate within the meaning of sub-section (4) of section 195.
(3) A complaint made under this section shall be signed
(a) where the Court making the complaint is a High Court, by such officer of the Court as the Court may appoint;
(b) in any other case, by the presiding officer of the Court or by such officer of the Court as the Court may authorise in writing in this behalf.
(4) In this section, “Court” has the same meaning as in section 195.