Updated: Jul, 01 2019

 

216. न्यायालय आरोप परिवर्तित कर सकता है --

(1) कोई भी न्यायालय निर्णय सुनाए जाने के पूर्व किसी समय किसी भी आरोप में, परिवर्तन या परिवर्धन कर सकता है।

(2) ऐसा प्रत्येक परिवर्तन या परिवर्धन अभियुक्त को पढ़कर सुनाया और समझाया जाएगा।

(3) यदि आरोप में किया गया परिवर्तन या परिवर्धन ऐसा है कि न्यायालय की राय में विचारण को तुरन्त आगे चलाने से अभियुक्त पर अपनी प्रतिरक्षा करने में या अभियोजक पर मामले के संचालन में कोई प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना नहीं है, तो न्यायालय ऐसे परिवर्तन या परिवर्धन के पश्चात् स्वविवेकानुसार विचारण को ऐसे आगे चला सकता है मानो परिवर्तित या परिवर्धित आरोप ही मूल आरोप है।

(4) यदि परिवर्तन या परिवर्धन ऐसा है कि न्यायालय की राय में विचारण को तुरन्त आगे चलाने से इस बात की संभावना है कि अभियुक्त या अभियोजक पर पूर्वोक्त रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा तो न्यायालय या तो नए विचारण का निदेश दे सकता है या विचारण को इतनी अवधि के लिए, जितनी आवश्यक हो, स्थगित कर सकता है।

(5) यदि परिवर्तित या परिवर्धित आरोप में कथित अपराध ऐसा है, जिसके अभियोजन के लिए पूर्व मंजूरी की आवश्यकता है, तो उस मामले में ऐसी मंजूरी अभिप्राप्त किए बिना कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी जब तक कि उन्हीं तथ्यों के आधार पर जिन पर परिवर्तित या परिवर्धित आरोप आधारित है, अभियोजन के लिए मंजूरी पहले ही अभिप्राप्त नहीं कर ली गई है।

 
216. Court may alter charge -
 
(1) Any Court may alter or add to any charge at any time before judgment is pronounced.

(2) Every such alteration or addition shall be read and explained to the accused.

(3) If the alteration or addition to a charge is such that proceeding immediately with the trial is not likely, in the opinion of the Court to prejudice the accused in his defence or the prosecutor in the conduct of the case the Court may, in its discretion, after such alteration or addition has been made, proceed with the trial as if the altered or added charge had been the original charge.

(4) If the alteration or addition is such that proceeding immediately with the trial is likely, in the opinion of the Court to prejudice the accused or the prosecutor as aforesaid, the Court may either direct a new trial or adjourn the trial for such period as may be necessary.

(5) If the offence stated in the altered or added charge is one for the prosecution of which previous sanction is necessary, the case shall not be proceeded with until such sanction is obtained, unless sanction has been already obtained for a prosecution on the same facts as those on which the altered or added charge is founded.

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