Hindu Succession Act 1956 in Hindi - हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956
No: 30 Dated: Jun, 17 1956
[Hindu Succession (Amendment) Act, 2005]
Hindu Succession Act 1956 in Hindi
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956
(1956 का अधिनियम संख्यांक 30)
[17 जून, 1956]
हिन्दुओं में निर्वसीयती उत्तराधिकार संबंधी विधि को संशोधित और संहिताबद्ध करने के लिए अधिनियम
भारत गणराज्य के सातवें वर्ष में संसद् द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित हो :-
अध्याय 1
प्रारम्भिक
1. संक्षिप्त नाम और विस्तार- (1) यह अधिनियम हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 कहा जा सकेगा।
(2) इसका विस्तार सम्पूर्ण भारत पर है। [The words "except the State of Jammu and Kashmir" omitted by Act 34 of 2019, s. 95 and the Fifth Schedule (w.e.f. 31-10- 2019)]
2. अधिनियम का लागू होना—(1) यह अधिनियम लागू है—
(क) ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो हिन्दू धर्म के किसी भी रूप या विकास के अनुसार, जिसके अन्तर्गत वीरशैव, लिंगायत अथवा ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज या आर्य समाज के अनुयायी भी आते हैं, धर्मत: हिन्दू हो;
(ख) ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो धर्मत: बौद्ध, जैन या सिक्ख हो; तथा
(ग) ऐसे किसी भी अन्य व्यक्ति को जो धर्मत: मुस्लिम, क्रिश्चियन, पारसी या यहूदी न हो, जब तक कि यह साबित न कर दिया जाए कि यदि यह अधिनियम पारित न किया गया होता तो ऐसा कोई भी व्यक्ति एतस्मिन् उपबन्धित किसी भी बात के बारे में हिन्दू विधि या उस विधि के भागरूप किसी रूढ़ि या प्रथा द्वारा शासित न होता।
स्पष्टीकरण- निम्नलिखित व्यक्ति धर्मतः, यथास्थिति, हिन्दू, बौद्ध, जैन या सिक्ख हैं :
(क) कोई भी अपत्य, धर्मज या अधर्मज, जिसके माता-पिता दोनों ही धर्मत: हिन्दू, बौद्ध, जैन या सिक्ख हों;
(ख) कोई भी अपत्य, धर्मज या अधर्मज, जिसके माता-पिता में से कोई एक धर्मत: हिन्दु, बौद्ध, जैन या सिक्ख हो और जो उस जनजाति, समुदाय, समूह या कुटुम्ब के सदस्य के रूप में पला हो जिसका वह माता या पिता सदस्य है या था;
(ग) कोई भी ऐसा व्यक्ति जो हिन्दू, बौद्ध, जैन या सिक्ख धर्म में संपरिवर्तित या प्रतिपरिवर्तित हो गया हो।
(2) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट कोई भी बात किसी ऐसी जनजाति के सदस्यों को, जो संविधान के अनुच्छेद 366 के खण्ड (25) के अर्थ के अन्तर्गत अनुसूचित जनजाति हो, लागू न होगी जब तक कि केन्द्रीय सरकार शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा अन्यथा निदिष्ट न कर दे।
(3) इस अधिनियम के किसी भी प्रभाग में आए हुए “हिन्दू” पद का ऐसा अर्थ लगाया जाएगा मानो उसके अन्तर्गत ऐसा व्यक्ति आता हो जो यद्यपि धर्मत: हिन्दू नहीं है तथापि ऐसा व्यक्ति है जिसे वह अधिनियम इस धारा में अन्तर्विष्ट उपबन्धों के आधार पर लागू होता है।
3. परिभाषाएं और निर्वचन- (1) इस अधिनियम में जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो-
(क) “गोत्रज”—एक व्यक्ति दूसरे का “गोत्रज” कहा जाता है यदि वे दोनों केवल पुरुषों के माध्यम से रक्त या दत्तक द्वारा एक दूसरे से सम्बन्धित हों;
(ख) “अलियसन्तान विधि” से वह विधि-पद्धति अभिप्रेत है जो ऐसे व्यक्ति को लागू है जो यदि यह अधिनियम पारित न किया गया होता तो मद्रास अलियसन्तान ऐक्ट, 1949 (मद्रास ऐक्ट 1949 का 9) द्वारा या रूढ़िगत अलियसन्तान विधि द्वारा उन विषयों के बारे में शासित होता जिनके लिए इस अधिनियम में उपबन्ध किया गया है;
(ग) “बन्धु”—एक व्यक्ति दूसरे का “बन्धु” कहा जाता है यदि वे दोनों रक्त या दत्तक द्वारा एक दूसरे से सम्बन्धित हों किन्तु केवल पुरुषों के माध्यम से नहीं;
(घ) “रूढ़ि” और “प्रथा” पद ऐसे किसी भी नियम का संज्ञान कराते हैं जिसने दीर्घकाल तक निरन्तर और एकरूपता से अनुपालित किए जाने के कारण किसी स्थानीय क्षेत्र, जनजाति, समुदाय, समूह या कुटुम्ब के हिन्दुओं में विधि का बल अभिप्राप्त कर लिया हो :
परन्तु यह तब जब कि नियम निश्चित हो और अयुक्तियुक्त या लोक नीति के विरुद्ध न हो: तथा
परन्तु यह और भी कि ऐसे नियम की दशा में जो एक कुटुम्ब को ही लागू हो, उसकी निरन्तरता उस कुटुम्ब द्वारा बन्द न कर दी गई हो;
(ङ) “पूर्णरक्त”, “अर्धरक्त” और “एकोदररक्त”—
(i) कोई भी दो व्यक्ति एक दूसरे से पूर्णरक्त द्वारा सम्बन्धित कहे जाते हैं जबकि वे एक ही पूर्वज से उसकी एक ही पत्नी द्वारा अवजनित हुए हों, और अर्धरक्त द्वारा सम्बन्धित कहे जाते हैं जबकि वे एक ही पूर्वज से किन्तु उसकी भिन्न पत्नियों द्वारा अवजनित हुए हों;
(ii) दो व्यक्ति एक दूसरे से एकोदररक्त द्वारा सम्बन्धित कहे जाते हैं जब कि वे एक ही पूर्वजा से किन्तु उसके भिन्न पतियों से अवजनित हुए हों।
स्पष्टीकरण- इस खण्ड में “पूर्वज” पद के अन्तर्गत पिता आता है और “पूर्वजा” के अन्तर्गत माता आती है;
(च) “वारिस” से ऐसा कोई भी व्यक्ति अभिप्रेत है चाहे वह पुरुष हो, या नारी, जो निर्वसीयत की सम्पत्ति का उत्तराधिकारी होने का इस अधिनियम के अधीन हकदार है;
(छ) “निर्वसीयत”– कोई व्यक्ति चाहे पुरुष हो या नारी जिसने किसी सम्पत्ति के बारे में ऐसा वसीयती व्ययन न किया हो जो प्रभावशील होने के योग्य हो, वह उस सम्पत्ति के विषय में निर्वसीय मरा समझा जाता है;
(ज) “मरुमक्कत्तायम् विधि” से विधि की वह पद्धति अभिप्रेत है जो उन व्यक्तियों को लागू है—
(क) जो यदि यह अधिनियम पारित न हुआ होता तो मद्रास मरुमक्कत्तायम् ऐक्ट, 1932 (मद्रास अधिनियम, 1933 का 22), ट्रावनकोर नायर ऐक्ट (1100के का 2), ट्रावनकोर ईषधा ऐक्ट, (1100के का 3), ट्रावनकोर नान्जिनाड वेल्लाल ऐक्ट, (1101के का 6), ट्रावनकोर क्षेत्रीय ऐक्ट, (1108के का 7), ट्रावनकोर कृष्णवका मरुमक्कत्तायी ऐक्ट, (1115के का 7), कोचीन मरुमक्कत्तायम् ऐक्ट (1113के का 33) या कोचीन नायर ऐक्ट (1113के का 29) द्वारा उन विषयों के बारे में शासित होते जिनके लिए इस अधिनियम द्वारा उपबन्ध किया गया है; अथवा
(ख) जो ऐसे समुदाय के हैं जिसके सदस्य अधिकतर तिरुवांकुर कोचीन या मद्रास राज्य में, जैसा कि वह पहली नवम्बर, 1956 के अव्यवहित पूर्व अस्तित्व में था] अधिवासी हैं और यदि यह अधिनियम पारित न हुआ होता तो जो उन विषयों के बारे में जिनके लिए इस अधिनियम द्वारा उपबन्ध किया गया है विरासत की ऐसी पद्धति द्वारा शासित होते जिसमें नारी परम्परा के माध्यम से अवजनन गिना जाता है;
किन्तु इसके अंतर्गत अलियसन्तान विधि नहीं आती;
(झ) “नंबूदिरी विधि” से विधि की वह पद्धति अभिप्रेत है जो उन व्यक्तियों को लागू है जो यदि यह अधिनियम पारित न किया गया होता तो मद्रास नम्बूदिरी ऐक्ट, 1932 (मद्रास अधिनियम, 1933 का 21), कोचीन नम्बूदिरी ऐक्ट (1113के का 17) या ट्रावनकोर मलायल्ल ब्राह्मण ऐक्ट (1106के का 3) द्वारा उन विषयों के बारे में शासित होते जिनके लिए इस अधिनियम में उपबन्ध किया गया है;
(ञ) “सम्बन्धित” से अभिप्रेत है, धर्मज द्वारा सम्बन्धित :
परन्तु अधर्मज अपत्य अपनी माता से और परस्पर एक दूसरे से सम्बन्धित समझे जाएंगे और उनके धर्मज वंशज उनसे और परस्पर एक दूसरे से सम्बन्धित समझे जाएंगे और किसी भी ऐसे शब्द का जो सम्बन्ध को अभिव्यक्त करे या संबंधी को घोषित करे तद्नुसार अर्थ लगाया जाएगा।
(2) इस अधिनियम में जब तक कि सन्दर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, पुल्लिंग संकेत करने वाले शब्दों के अंतर्गत नारियां न समझी जाएंगी।
4. अधिनियम का अध्यारोही प्रभाव- (1) इस अधिनियम में अभिव्यक्तत: उपबन्धित के सिवाय-
(क) हिन्दू विधि का कोई ऐसा शास्त्र-वाक्य, नियम या निर्वचन या उस विधि की भागरूप कोई भी रूढ़ि या प्रथा, जो इस अधिनियम के प्रारम्भ के अव्यवहित पूर्व प्रवृत्त रही हो, ऐसे किसी भी विषय के बारे में, जिसके लिए इस अधिनियम में उपबन्ध किया गया है, प्रभावहीन हो जाएगी ;
(ख) इस अधिनियम के प्रारम्भ के अव्यवहित पूर्व प्रवृत्त किसी भी अन्य विधि का हिन्दुओं को लागू होना वहां तक बन्द हो जाएगा जहां तक कि वह इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट उपबन्धों में से किसी से भी असंगत हो।
अध्याय 2
निर्वसीयती उत्तराधिकार
साधारण
5. अधिनियम का कुछ सम्पत्तियों को लागू न होना- यह अधिनियम निम्नलिखित को लागू न होगा-
(i) ऐसी किसी सम्पत्ति को जिसके लिए उत्तराधिकार, विशेष अधिनियम, 1954 (1954 का 43) की धारा 21 में अन्तर्विष्ट उपबन्धों के कारण भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 (1925 का 39) द्वारा विनियमित होता है ;
(ii) ऐसी किसी सम्पदा को जो किसी देशी राज्य के शासक द्वारा भारत सरकार से की गई प्रसंविदा करार के निबन्धनों द्वारा या इस अधिनियम के प्रारम्भ से पूर्व पारित किसी अधिनियमिति के निबन्धनों द्वारा किसी एकल वारिस को अवजनित हुई है ;
(iii) वलियम्म तंबुरान केविलगम् सम्पदा पैलेस फण्ड को जो कि महाराजा कोचीन द्वारा 29 जून, 1949 को प्रख्यापित उद्घोषणा (1124 का 9) द्वारा प्रदत्त शक्तियों के आधार पर पैलेस एडमिनिस्ट्रेशन बोर्ड द्वारा प्रशासित है।
6. सहदायिकी सम्पत्ति में के हित का न्यागमन— (1) हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ से ही मिताक्षरा विधि द्वारा शासित किसी संयुक्त हिन्दू कुटुम्ब में किसी सहदायिक की पुत्री,-
(क) जन्म से ही अपने स्वयं के अधिकार से उसी रीति से सहदायिक बन जाएगी जैसे पुत्र होता है ;
(ख) सहदायिकी संपत्ति में उसे वही अधिकार प्राप्त होंगे जो उसे तब प्राप्त हुए होते जब वह पुत्र होती;
(ग) उक्त सहदायिकी संपत्ति के संबंध में पुत्र के समान ही दायित्वों के अधीन होगी, और हिन्दू मिताक्षरा सहदायिक के प्रति किसी निर्देश से यह समझा जाएगा कि उसमें सहदायिक की पुत्री के प्रति कोई निर्देश सम्मलित है :
परंतु इस उपधारा की कोई बात किसी व्ययन या अन्यसंक्रामण को, जिसके अंतर्गत संपत्ति का ऐसा कोई विभाजन या वसीयती व्यय भी है, जो 20 दिसम्बर, 2004 से पूर्व किया गया था, प्रभावित या अविधिमान्य नहीं करेगी।
(2) कोई संपत्ति, जिसके लिए कोई हिन्दू नारी उपधारा (1) के आधार पर हकदार बन जाती है, उसके द्वारा सहदायिकी स्वामित्व की प्रसंगतियों सहित धारित की जाएगी और, इस अधिनियम या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी वसीयती व्ययन द्वारा उसके द्वारा किए जाने योग्य संपत्ति के रूप में समझी जाएगी।
(3) जहां किसी हिन्दू की, हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ के पश्चात् मृत्यु हो जाती है, वहां मिताक्षरा विधि द्वारा शासित किसी संयुक्त हिन्दू कुटुम्ब की संपत्ति में उसका हित, यथास्थिति, इस अधिनियम के अधीन वसीयती या निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत हो जाएगा परंतु उत्तरजीविता के आधार पर नहीं और सहदायिकी संपत्ति इस प्रकार विभाजित की गई समझी जाएगी मानो विभाजन हो चुका था, और—
(क) पुत्री को वही अंश आबंटित होगा जो पुत्र को आबंटित किया गया है ;
(ख) पूर्व मृत पुत्र या किसी पूर्व मृत पुत्री का अंश, जो उन्हें तब प्राप्त हुआ होता यदि वे विभाजन के समय जीवित होते, ऐसे पूर्व मृत पुत्र या ऐसी पूर्व मृत पुत्री की उत्तरजीवी संतान को आबंटित किया जाएगा ; और
(ग) किसी पूर्व मृत पुत्र या किसी पूर्व मृत पुत्री की पूर्व मृत संतान का अंश जो उस संतान ने उस रूप में प्राप्त किया होता यदि वह विभाजन के समय जीवित होती, यथास्थिति, पूर्व मृत पुत्र या किसी पूर्व मृत पुत्री की पूर्व मृत संतान की संतान को आबंटित किया जाएगा।
स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजनों के लिए हिन्दू मिताक्षरा सहदायिक का हित संपत्ति में का वह अंश समझा जाएगा जो उसे आबंटित किया गया होता यदि उसकी अपनी मृत्यु से अव्यवहित पूर्व संपत्ति का विभाजन किया गया होता, इस बात का विचार किए बिना कि वह विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं।
(4) हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ के पश्चात् कोई न्यायालय किसी पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध उसके पिता, पितामह, या प्रपितामह से शोध्य किसी ऋण की वसूली के लिए हिन्दू विधि के अधीन पवित्र बाध्यता के आधार पर ही ऐसे किसी ऋण को चुकाने के लिए ऐसे पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध कार्यवाही करने के किसी अधिकार को मान्यता नहीं देगा :
परन्तु हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ से पूर्व लिए गए ऋण की दशा में इस उपधारा में अन्तर्विष्ट कोई बात निम्नलिखित को प्रभावित नहीं करेगी,—
(क) यथास्थिति, पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए किसी ऋणदाता का अधिकार ; या
(ख) किसी ऐसे ऋण के संबंध में या उसके चुकाए जाने के लिए किया गया कोई संक्रामण और कोई ऐसा अधिकार या संक्रामण पवित्र बाध्यता के नियम के अधीन वैसी ही रीति में और उसी सीमा तक प्रवर्तनीय होगा जैसा कि उस समय प्रवर्तनीय होता जबकि हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 अधिनियमित न किया गया होता।
स्पष्टीकरण- खंड (क) के प्रयोजनों के लिए, “पुत्र”, “पौत्र” या “प्रपौत्र” पद से यह समझा जाएगा कि वह, यथास्थिति, ऐसे पुत्र, पौत्र या प्रपौत्र के प्रति निर्देश है, जो हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रारंभ के पूर्व पैदा हुआ था दत्तक ग्रहण किया गया था।
(5) इस धारा में अन्तर्विष्ट कोई बात ऐसे विभाजन को लागू नहीं होगी जो 20 दिसम्बर, 2004 से पूर्व किया गया है।
स्पष्टीकरण- इस धारा के प्रयोजनों के लिए “विभाजन” से रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1908 (1908 के 16) अधीन सम्यक् रूप से रजिस्ट्रीकृत किसी विभाजन विलेख के निष्पादन द्वारा किया गया कोई विभाजन या किसी न्यायालय की किसी डिक्री द्वारा किया गया विभाजन अभिप्रेत है।
7. तरवाड, तावषि, कुटुम्ब, कवर या इल्लम् की सम्पत्ति में हित का न्यागमन- (1) जबकि कोई हिन्दू जिसे यदि यह अधिनियम पारित न किया गया होता तो मरुमक्कतायम् या नंबुदिरी विधि लागू होती इस अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात् अपनी मृत्यु के समय, यथास्थिति, तरवाड, तावषि या इस्लम् की सम्पत्ति में हित रखते हुए मरे तब सम्पत्ति में उसका हित इस अधिनियम के अधीन, यथास्थिति, वसीयती या निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत होगा, मरुमक्कतायम् या नंबुदिरी विधि के अनुसार नहीं।
स्पष्टीकरण- इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए तरवाड, तावषि या इल्लम की सम्पत्ति में हिन्दु का हित, यथास्थिति, तरवाड, तावषि या इल्लम् की सम्पत्ति में वह अंश समझा जाएगा जो उसे मिलता यदि उसकी अपनी मृत्यु के अव्यवहित पूर्व, यथास्थिति, तरवाड़, तावषि या इल्लम् के उस समय जीवित सब सदस्यों में उस सम्पत्ति का विभाजन व्यक्तिवार हुआ होता, चाहे वह अपने को लागू मरुमक्कातायम् या नंबुदिरी विधि के अधीन ऐसे विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं तथा ऐसा अंश उसे बांट में आत्यंकित: दिया गया समझा जाएगा।
(2) जबकि कोई हिन्दू, जिसे यदि यह अधिनियम पारित न किया गया होता तो अलियसन्तान विधि लागू होती इस अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात् अपनी मृत्यु के समय, यथास्थिति, कुटुम्ब या कवरू की सम्पत्ति में अविभक्त हित रखते हुए मरे तब सम्पत्ति में उसका अपना हित इस अधिनियम के अधीन, यथास्थिति, वसीयती या निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत होगा, अलियसन्तान विधि के अनुसार नहीं।
स्पष्टीकरण—इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए कुटुम्ब या कवर की सम्पत्ति में हिन्दू का हित, यथास्थिति, कुटुम्ब या कवरु की सम्पत्ति में अंश समझा जाएगा जो उसे मिलता यदि उसकी अपनी मृत्यु के अव्यवहित पूर्व, यथास्थिति, कुटुम्ब या कवरु के उस समय जीवित सब सदस्यों में उस सम्पत्ति का विभाजन व्यक्तिवार हुआ होता, चाहे वह अलियसन्तान विधि के अधीन ऐसे विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं तथा ऐसा अंश उसे बांट में आत्यंतिकतः दे दिया गया समझा जाएगा।
(3) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी जबकि इस अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात् कोई स्थानम्दार मरे तब उसके द्वारा धारित स्थानम् सम्पत्ति उस कुटुम्ब के सदस्यों को जिसका वह स्थानम्दार है और स्थानम्दार के वारिसों को ऐसे न्यागत होगी मानो स्थानम् समत्ति स्थानम्दार और उसके उस समय जीवित कुटुम्ब के सब सदस्यों के बीच स्थानम्दार की मृत्यु के अव्यवहित पूर्व व्यक्तिवार तौर पर विभाजित कर दी गई थी और स्थानम्दार के कुटुम्ब के सदस्यों और स्थानम्दार के वारिसों को जो अंश मिले उन्हें वे अपनी पृथक् सम्पत्ति के तौर पर धारित करेंगे।
स्पष्टीकरण—इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए स्थानम्दार के कुटुम्ब के अंतर्गत उस कुटुम्ब को, चाहे विभक्त हो या अविभक्त, हर वह शाखा आएगी जिसके पुरुष सदस्य यदि अधिनियम पारित न किया गया होता तो किसी रूढ़ि या प्रथा के आधार पर स्थानम्दार के पद पर उत्तरवर्ती होने के हकदार होते।
8. पुरुष की दशा में उत्तराधिकार के साधारण नियम—निर्वसीयत मरने वाले हिन्दू पुरुष की सम्पत्ति इस अध्याय के उपबन्धों के अनुसार निम्नलिखित को न्यागत होगी :-
(क) प्रथमतः, उन वारिसों को, जो अनुसूची के वर्ग 1 में विनिर्दिष्ट सम्बन्धी हैं ;
(ख) द्वितीयतः, यदि वर्ग 1 में वारिस न हो तो उन वारिसों को जो अनुसूची के वर्ग 2 में विनिर्दिष्ट सम्बन्धी हैं ;
(ग) तृतीयतः, यदि दोनों वर्गों में से किसी में का कोई वारिस न हो तो मृतक के गोत्रजों को; तथा
(घ) अन्तत:, यदि कोई गोत्रज न हो तो मृतक बन्धुओं को।
9. अनुसूची में के वारिसों के बीच उत्तराधिकार का क्रम- अनुसूची में विनिर्दिष्ट वारिसों में के वर्ग 1 में के वारिस एक साथ और अन्य सब वारिसों का अपवर्जन करते हए अंशभागी होंगे; वर्ग 2 में की पहली प्रविष्टि में के वारिसों को दूसरी प्रविष्टि में के वारिसों की अपेक्षा अधिमान प्राप्त होगा; दूसरी प्रविष्टि में के वारिसों को तीसरी प्रविष्टि में के वारिसों की अपेक्षा अधिमान प्राप्त होगा और इसी प्रकार आगे क्रम से अधिमान प्राप्त होगा।
10. अनुसूची के वर्ग 1 में के वारिसों में सम्पत्ति का वितरण- निर्वसीयत की संपत्ति अनुसूची के वर्ग 1 में के वारिसों में निम्नलिखित नियमों के अनुसार विभाजित की जाएगी-
नियम 1–निर्वसीयत की विधवा को या यदि एक से अधिक विधवाएं हों तो सब विधवाओं को मिलाकर एक अंश मिलेगा।
नियम 2–निर्वसीयत के उत्तरजीवी पुत्रों और पुत्रियों और माता हर एक को एक-एक अंश मिलेगा।
नियम 3–निर्वसीयत के हर एक पूर्व मृत पुत्र की या हर एक पूर्व मृत पुत्री की शाखा में के सब वारिसों को मिलाकर एक अंश मिलेगा।
नियम 4–नियम 3 में निर्दिष्ट अंश का वितरण–
(i) पूर्व मृत पुत्र की शाखा में के वारिसों के बीच ऐसे किया जाएगा कि उसकी अपनी विधवा को (या सब विधवाओं को मिलाकर) और उत्तरजीवी पुत्रों और पुत्रियों को बराबर भाग प्राप्त हों, और उसके पूर्व मृत पुत्री की शाखा को वही भाग प्राप्त हो।
(ii) पूर्व मृत पुत्री की शाखा में के वारिसों के बीच ऐसे किया जाएगा कि उत्तजीवी पुत्रों और पुत्रियों को बराबर भाग प्राप्त हो ।
11. अनुसूची के वर्ग 2 में के वारिसों में सम्पत्ति का वितरण- अनुसूची के वर्ग 2 में किसी एक प्रविष्टि में विनिर्दिष्ट वारिसों के बीच निर्वसीयत की सम्पत्ति ऐसे विभाजित की जाएगी कि उन्हें बराबर अंश मिले।
12. गोत्रजों और बन्धुओं में उत्तराधिकार का क्रम–गोत्रजों या बन्धुओं में, यथास्थिति, उत्तराधिकार का क्रम यहां नीचे दिए हुए अधिमान के नियमों के अनुसार अवधारित किया जाएगा–
नियम 1–दो वारिसों में से उसे अधिमान प्राप्त होगा जिसकी उपरली ओर की डिग्रियां अपेक्षातर कम हों या हों ही नहीं।
नियम 2–जहां कि उपरली ओर की डिग्रियों की संख्या एक समान हो या हों ही नहीं उस वारिस को अधिमान प्राप्त होगा जिसकी निचली ओर की डिग्रियां अपेक्षातर कम हों या हों ही नहीं।
नियम 3–जहां कि नियम 1 या नियम 2 के अधीन कोई भी वारिस दूसरे से अधिमान का हकदार न हो वहां वे दोनों साथ-साथ अंशदायी होंगे।
13. डिग्रियों की संगणना—(1) गोत्रजों या बन्धुओं के बीच उत्तराधिकार क्रम के अवधारण के प्रयोजन के लिए निर्वसीयत से, यथास्थिति, उपरली डिग्री या निचली डिग्री या दोनों के अनुसार के वारिस के सम्बन्ध की संगणना की जाएगी।
(2) उपरली डिग्री और निचली डिग्री की संगणना निर्वसीयत को गिनते हुए की जाएगी।
(3) हर पीढ़ी एक डिग्री गठित करती है चाहे उपरली चाहे निचली।
14. हिन्दू नारी की सम्पत्ति उसकी आत्यंतिकतः अपनी सम्पत्ति होगी—(1) हिन्दू नारी के कब्जे में की कोई भी सम्पत्ति, चाहे वह इस अधिनियम के प्रारम्भ से पूर्व या पश्चात् अर्जित की गई हो, उसके द्वारा पूर्ण स्वामी के तौर पर न कि परिसीमित स्वामी के तौर पर धारित की जाएगी।
स्पष्टीकरण- इस उपधारा में “सम्पत्ति” के अंतर्गत वह जंगम और स्थावर सम्पत्ति आती है जो हिन्दू नारी ने विरासत द्वारा अथवा वसीयत द्वारा अथवा विभाजन में अथवा भरण-पोषण के या भरण-पोषण की बकाया के बदले में अथवा अपने विवाह के पूर्व या विवाह के समय या पश्चात् दान द्वारा किसी व्यक्ति से, चाहे वह सम्बन्धी हो या न हो, अथवा अपने कौशल या परिश्रम द्वारा अथवा क्रय द्वारा अथवा चिरभोग द्वारा अथवा किसी अन्य रीति से, चाहे वह कैसी ही क्यों न हो, अर्जित की हो और ऐसी सम्पत्ति भी जो इस अधिनियम के प्रारम्भ से अव्यवहित पूर्व स्त्रीधन के रूप में उसके द्वारा धारित थी।
(2) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट कोई बात ऐसी किसी सम्पत्ति को लागू न होगी जो दान अथवा विल द्वारा या अन्य किसी लिखत के अधीन सिविल न्यायालय की डिक्री या आदेश के अधीन या पंचाट के अधीन अर्जित की गई हो यदि दान, विल या अन्य लिखत अथवा डिग्री, आदेश या पंचाट के निबन्धन ऐसी सम्पत्ति में निर्बन्धित सम्पदा विहित करते हों।
15. हिन्दू नारी की दशा में उत्तराधिकार के साधारण नियम- (1) निर्वसीयत मरने वाली हिन्दू नारी की सम्पत्ति धारा 16 में दिए गए नियमों के अनुसार निम्नलिखित को न्यागत होगी :-
(क) प्रथमतः पुत्रों और पुत्रियों (जिसके अन्तर्गत किसी पूर्व मृत पुत्र या पुत्री के अपत्य भी हैं) और पति को;
(ख) द्वितीयतः पति के वारिसों को ;
(ग) तृतीयतः माता और पिता को ;
(घ) चतुर्थतः पिता के वारिसों को ; तथा
(ङ) अन्ततः माता के वारिसों को।
(2) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी—
(क) कोई सम्पत्ति जिसकी विरासत हिन्दू नारी को अपने पिता या माता से प्राप्त हुई हो, मृतक के पुत्र या पुत्री के (जिसके अन्तर्गत किसी पूर्व मृत पुत्र या पुत्री के अपत्य भी आते हैं) अभाव में उपधारा (1) में निर्दिष्ट अन्य वारिसों को उसमें विनिर्दिष्ट क्रम से न्यागत न होकर पिता के वारिसों को न्यागत होगी; तथा
(ख) कोई सम्पत्ति जो हिन्दू नारी को अपने पति या अपने श्वसुर से विरासत में प्राप्त हुई हो मृतक के किसी पुत्र या पुत्री के (जिसके अन्तर्गत किसी पूर्व मृत पुत्र या पुत्री के अपत्य भी आते हैं) अभाव में उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट अन्य वारिसों को उसमें विनिर्दिष्ट क्रम से न्यागत न होकर पति के वारिसों को न्यागत होगी।
16. हिन्दू नारी के वारिसों में उत्तराधिकार का क्रम और वितरण की रीति-धारा 15 में निर्दिष्ट वारिसों में उत्तराधिकार का क्रम और उन वारिसों में निर्वसीयत की संपत्ति का वितरण निम्नलिखित नियमों के अनुसार होगा, अर्थात् :
नियम 1–धारा 15 की उपधारा (1) में विनिर्दिष्ट वारिसों में से पहली प्रविष्टि में के वारिसों को किसी उत्तरवर्ती प्रविष्टि में के वारिसों की तुलना में अधिमान प्राप्त होगा और जो वारिस एक ही प्रविष्टि के अंतर्गत हो, वे साथ-साथ अंशभागी होंगे।
नियम 2–यदि निर्वसीयत का कोई पुत्र या अपने ही कोई अपत्य निर्वसीयत की मृत्यु के समय जीवित छोड़कर निर्वसीयत से पूर्व मर जाए तो ऐसे पुत्र या पुत्री के अपत्य परस्पर वह अंश लेंगे जिसे वह लेती यदि निर्वसीयत की मृत्यु के समय ऐसा पुत्र या पुत्री जीवित होती।
नियम 3–धारा 15 की उपधारा (1) के खण्ड (ख), (घ) और (ङ) में और उपधारा (2) में निर्दिष्ट वारिसों को निर्वसीयत की सम्पत्ति उसी क्रम में और उन्हीं नियमों के अनुसार न्यागत होगी जो लागू होते यदि सम्पत्ति, यथास्थिति, पिता की या माता की या पति की होती और वह व्यक्ति निर्वसीयत की मृत्यु के अव्यवहित पश्चात् उस सम्पत्ति के बारे में वसीयत किए बिना मर गया होता।
17. मरुमक्कत्तायम और अलियसन्तान विधियों द्वारा शासित व्यक्तियों के विषय में विशेष उपबन्ध- धाराओं 8, 10, 15 और 23 के उपबन्ध उन व्यक्तियों के सम्बन्ध में जो यदि यह अधिनियम पारित न किया गया होता तो मरुमक्कत्तायम् विधि या अलियसन्तान विधि द्वारा शासित होते, ऐसे प्रभावशील होंगे मानो :
(i) धारा 8 के उपखण्डों (ग) और (घ) के स्थान पर निम्नलिखित प्रतिस्थापित कर दिया गया हो, अर्थात् :
“(ग) तृतीयत:, यदि दोनों वर्गों में किसी का कोई वारिस न हो तो उसके सम्बन्धियों को चाहे वे गोत्रज हों या बन्धु हों।";
(ii) धारा 15 की उपधारा (1) के खण्ड (क) से लेकर (ङ) तक के स्थान पर निम्नलिखित प्रतिस्थापित कर दिया गया हो, अर्थात् :-
“(क) प्रथमत:, पुत्रों और पुत्रियों को (जिनके अंतर्गत किसी पूर्व मृत पुत्र या पुत्री के अपत्य भी आते हैं) और माता को;
(ख) द्वितीयत:, पिता और पति को;
(ग) तृतीयत:, माता के वारिसों को;
(घ) चतुर्थतः, पिता के वारिसों को; तथा
(ङ) अन्तत:, पति के वारिसों को।”
(iii) धारा 15 की उपधारा (2) का खण्ड (क) लुप्त कर दिया गया हो;
(iv) धारा 23 लुप्त कर दी गई हो।
उत्तराधिकार से संबंधित साधारण उपबंध
18. पूर्णरक्त को अर्धरक्त पर अधिमान प्राप्त है–निर्वसीयत से पूर्णरक्त सम्बन्ध रखने वाले वारिसों को अर्धरक्त सम्बन्ध रखने वाले वारिसों पर अधिमान प्राप्त होगा यदि उस सम्बन्ध की प्रकृति सब प्रकार से वही हो ।
19. दो या अधिक वारिसों के उत्तराधिकार का ढंग–यदि दो या अधिक वारिस निवर्ससीयत की सम्पत्ति के एक साथ उत्तराधिकारी होते हैं तो वे सम्पत्ति को निम्नलिखित प्रकार से पाएंगे-
(क) इस अधिनियम में अभिव्यक्त तौर पर अन्यथा उपबन्धित के सिवाय व्यक्तिवार, न कि शाखावार आधार पर लेंगे; और
(ख) सामान्यिक अभिधारियों की हैसियत में न कि संयुक्त अभिधारियों की हैसियत में लेंगे।
20. गर्भ स्थित अपत्य का अधिकार– जो अपत्य निर्वसीयत की मृत्यु के समय गर्भ में स्थित था और जो तत्पश्चात् जीवित पैदा हुआ हो उसके निर्वसीयत की विरासत के विषय में वही अधिकार होंगे जो उसके होते यदि वह निर्वसीयत की मृत्यु के पूर्व पैदा हुआ होता; और ऐसी दशा में विरासत निर्वसीयत की मृत्यु की तारीख से उसमें निहित समझी जाएगी।
21. सम-सामयिक मृत्युओं के विषय में उपधारणा–जहां कि दो व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों में मरे हों जिनमें यह अभिनिश्चित हो कि उनमें से कोई दूसरे का उत्तरजीवी रहा या नहीं और रहा तो कौन सा, वहां जब तक प्रतिकूल साबित न किया जाए, सम्पत्ति के उत्तराधिकार सम्बन्धी सब प्रयोजनों के लिए यह उपधारणा की जाएगी कि कनिष्ठ ज्येष्ठ का उत्तरजीवी रहा।
22. कुछ दशाओं में सम्पत्ति अर्जित करने का अधिमानी अधिकार– (1) जहां कि इस अधिनियम के प्रारम्भ के पश्चात निर्वसीयत की किसी स्थावर सम्पत्ति में या उसके द्वारा चाहे स्वयं या दूसरों के साथ किए जाने वाले किसी कारबार में के हित में अनुसूची के वर्ग 1 में विनिर्दिष्ट दो या अधिक वारिसों को न्यागत हों और ऐसे वारिसों में से कोई उस सम्पत्ति या कारबार में अपने हित के अन्तरण की प्रस्थापना करे वहां ऐसे अन्तरित किए जाने के लिए प्रस्थापित हित को अर्जित करने का अधिमानी अधिकार दूसरे वारिसों को प्राप्त होगा।
(2) मृतक की सम्पत्ति में कोई हित जिस प्रतिफल के लिए इस धारा के अधीन अन्तरित किया जा सकेगा, वह पक्षकारों के बीच किसी करार के अभाव में इस निमित्त किए गए आवेदन पर न्यायालय द्वारा अवधारित किया जाएगा और यदि उस हित को अर्जित करने की प्रस्थापना करने वाला कोई व्यक्ति ऐसे अवधारित प्रतिफल पर उसे अर्जित करने के लिए राजी न हो तो ऐसा व्यक्ति उस आवेदन के, या उससे आनुषंगिक सब खर्चों को देने का दायी होगा।
(3) यदि इस धारा के अधीन किसी हित के अर्जित करने की प्रस्थापना करने वाले अनुसूची के वर्ग 1 में विनिर्दिष्ट दो या अधिक वारिस हों तो उस वारिस को अधिमान दिया जाएगा जो अन्तरण के लिए अधिकतम प्रतिफल देने की पेशकश करे।
स्पष्टीकरण– इस धारा में “न्यायालय” से वह न्यायालय अभिप्रेत है जिसकी अधिकारिता की सीमाओं के अन्दर वह स्थावर सम्पत्ति आस्थित है या कारबार किया जाता है और इसके अंतर्गत ऐसा कोई अन्य न्यायालय भी आता है जिसे राज्य सरकार शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे।
23. निवास-गृह के बारे में विशेष उपबन्ध (1) हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 (2005 का अधिनियम सं० 39) की धारा 4 द्वारा (9-9-2005 से) लोप किया गया।
24. पुनर्विवाह करने वाली कुछ विधवाएं विधवा होने के नाते विरासत प्राप्त न कर सकेंगी - हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 (2005 का अधिनियम सं० 39) की धारा 5 द्वारा (9-9-2005 से) लोप किया गया।
25. हत्या करने वाला निरर्हित होगा–जो व्यक्ति हत्या करता है या हत्या करने का दुष्प्रेरण करता है वह हत व्यक्ति की सम्पत्ति या ऐसी किसी अन्य सम्पत्ति को, जिसमें उत्तराधिकार को अग्रसर करने के लिए उसने हत्या की थी या हत्या करने का दुष्प्रेरण किया था, विरासत में पाने से निरर्हित होगा।
26. संपरिवर्तितों के वंशज निरर्हित होंगे – जहां कि कोई हिन्दु इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व या पश्चात् धर्म-संपरिवर्तन के कारण हिन्दू न रह गया हो या न रहे वहां ऐसे संपरिवर्तन के पश्चात् पैदा हुए उसके अपत्य और उस अपत्य के वंशज अपने हिन्दू सम्बन्धियों में से किसी की सम्पत्ति को विरासत में प्राप्त करने से निरहित होंगे सिवाय जब कि ऐसे अपत्य या उस अपत्य के वंशज उस समय जबकि उत्तराधिकार खुले, हिन्दू हों।
27. उत्तराधिकार जबकि वारिस निरहित हो – यदि कोई व्यक्ति किसी सम्पत्ति को विरासत में पाने से इस अधिनियम के अधीन निरहित हो तो वह सम्पत्ति ऐसे न्यागत होगी मानो ऐसा व्यक्ति निर्वसीयत के पूर्व मर चुका हो।
28. रोग, त्रुटि आदि से निरर्हता न होगी– कोई व्यक्ति किसी सम्पत्ति का उत्तराधिकार पाने से किसी रोग, त्रुटि या अंगविकार के आधार पर या इस नियम में यथा उपबन्धित को छोड़कर किसी भी अन्य आधार पर, चाहे वह कोई क्यों न हो, निरहित न होगा।
राजगामित्व
29. वारिसों का अभाव– यदि निर्वसीयत ऐसा कोई वारिस पीछे न छोड़े जो उसकी सम्पत्ति को इस अधिनियम के उपबन्धों के अनुसार उत्तराधिकार में पाने के लिए अर्ह हो तो ऐसी सम्पत्ति सरकार को न्यागत होगी और सरकार ऐसी सम्पत्ति को उन सब बाध्यताओं और दायित्वों के अध्यधीन लेगी जिनके अध्यधीन वारिस होता।
अध्याय 3
वसीयती उत्तराधिकार
30. वसीयती उत्तराधिकार– कोई हिन्दू विल द्वारा या अन्य वसीयती व्ययन द्वारा भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 (1925 का 39) या हिन्दुओं को लागू और किसी अन्य तत्समय प्रवृत्त विधि के उपबन्धों के अनुसार किसी ऐसी सम्पत्ति को 2[व्ययनित कर सकेगा या कर सकेगी] जिसका ऐसे व्ययनित किया जाना शक्य हो।
स्पष्टीकरण– मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में हिन्दू पुरुष का हित या तरवाड, तावषि, इल्लम, कुटुम्ब या कवर की सम्पत्ति में तरवाड, तावषि, इल्लम्, कुटुम्ब या कवर के सदस्य का हित इस अधिनियम में या किसी अन्य तत्समय प्रवृत्त विधि में किसी बात के होते हुए भी इस 3[धारा] के अर्थ के अन्दर ऐसी सम्पत्ति समझी जाएगी जिसका उस द्वारा व्ययनित किया जाना शक्य हो।
अध्याय 4
निरसन
31. निरसन - निरसन तथा संशोधन अधिनियम, 1960 (1960 का 58) की धारा 2 तथा अनुसूची 1 द्वारा निरसित।
अनुसूची
(धारा 8 देखिए)
वर्ग 1 और वर्ग 2 में वारिस
वर्ग 1
पुत्र, पुत्री, विधवा, माता, पूर्व मृत पुत्र का पुत्र, पूर्व मृत पुत्र की पुत्री, पूर्व मृत पुत्री का पुत्र, पूर्व मृत पुत्री की पुत्री, पूर्व मृत पुत्र की विधवा, पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र का पुत्र, पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र की पुत्री, पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र की विधवा, [पूर्व मृत पुत्री की पूर्व मृत पुत्री का पुत्र; पूर्व मृत पुत्री की पूर्व मृत पुत्री की पुत्री, पूर्व मृत पुत्री के पूर्व मृत पुत्र की पुत्री; पूर्व मृत पुत्र की पूर्व मृत पुत्री की पुत्री।]
I. पिता।
II. (1) पुत्र की पुत्री का पुत्र, (2) पुत्र की पुत्री की पुत्री, (3) भाई, (4) बहिन ।
III. (1) पुत्री के पुत्र का पुत्र, (2) पुत्री के पुत्र की पुत्री, (3) पुत्री की पुत्री का पुत्र, (4) पुत्री की पुत्री।
IV. (1) भाई का पुत्र, (2) बहिन का पुत्र, (3) भाई की पुत्री, (4) बहिन की पुत्री।
V. पिता का पिता, पिता की माता।
VI. पिता की विधवा, भाई की विधवा ।
VII. पिता का भाई, पिता की बहिन ।
VIII. माता का पिता, माता की माता।
IX. माता का भाई, माता की बहिन ।
स्पष्टीकरण– इस अनुसूची में भाई या बहिन के प्रति निर्देशों के अंतर्गत उस भाई या बहिन के प्रति निर्देश नहीं है जो केवल एकोदरक्त के हों।