Hindu Minority and Guardianship Act 1956 in Hindi
No: 32 Dated: Aug, 25 1956
हिन्दू अप्राप्तवयता संरक्षकता अधिनियम, 1956
( 1956 का अधिनियम संख्यांक 32 ) [25 अगस्त 1956]
1. संक्षिप्त नाम और विस्तार -
(1) यह अधिनियम हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 कहा जा सकेगा।
(2) इसका विस्तार जम्मू-कश्मीर राज्य के सिवाय सम्पूर्ण भारत पर है और यह उन राज्यक्षेत्रों में, जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है, अधिवसित उन हिन्दुओं को भी लागू है जो उक्त राज्यक्षेत्र के बाहर हों।
2. यह अधिनियम 1890 के अधिनियम 8 का अनुपूरक होगा -
इस अधिनियम के उपबंध संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के अतिरिक्त न कि, एतस्मिन्पश्चात् अभिव्यक्ततः उपबंधित के सिवाय उसके अल्पीकारक होंगे।
3. अधिनियम का लागू होना -
(1) यह अधिनियम लागू है -
(क) ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो हिन्दू धर्म के किसी भी रूप या विकास के अनुसार, जिसके अन्तर्गत वीरशैव, लिंगायत अथवा ब्रह्मसमाज, प्रार्थना समाज या आर्यसमाज के अनुयायी भी आते हैं, धर्मत: हिन्दू हों;
(ख) ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो धर्मत: बौद्ध, जैन या सिक्ख हों, तथा
(ग) ऐसे किसी भी अन्य व्यक्ति को जो उन राज्यक्षेत्रों में, जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है, अधिवसित हो और धर्मत: मुस्लिम, क्रिश्चियन, पारसी या यहूदी न हो, जब तक यह साबित न कर दिया जाए कि यदि यह अधिनियम पारित न किया गया होता तो ऐसा कोई भी व्यक्ति एतस्मिन् उपबन्धित किसी भी बात के बारे में हिन्दू विधि का उस विधि के भागरूप किसी रूढ़ि या प्रथा द्वारा शासित न होता।
स्पष्टीकरण - निम्नलिखित व्यक्ति धर्मत: यथास्थिति, हिन्द, बौद्ध, जैन या सिक्ख हैं
(i) कोई भी अपत्य, धर्मज या अधर्मज, जिसके माता-पिता दोनों ही धर्मत: हिन्दू, बौद्ध, जैन या सिक्ख हों;
(ii) कोई भी अपत्य, धर्मज या अधर्मज, जिसके माता-पिता में से कोई एक धर्मत: हिन्दू, बौद्ध, जैन या सिक्ख हों और जो उस जनजाति, समुदाय, समूह या कुटुम्ब के सदस्य के रूप में पला हो जिसका वह माता या पिता सदस्य है या था; तथा
(iii) कोई भी ऐसा व्यक्ति जो हिन्दू, जैन या सिक्ख धर्म में संपरिवर्तित या प्रतिसंपरिवर्तित हो गया हो ।
(2) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट कोई भी बात किसी ऐसी जनजाति के सदस्यों को, जो संविधान के अनुच्छेद 336 के खंड (25) के अर्थ के अन्तर्गत अनूसचित जनजाति हो, लागू न होगी जब तक कि केन्द्रीय सरकार शासकीय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा अन्यथा निर्दिष्ट न कर दे।
(2-क) उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी इस अधिनियम की कोई बात पांडिचेरी संघ राज्यक्षेत्र के रिनान्कैन्टों को लागू नहीं होगी।
(3) इस अधिनियम के किसी भी प्रभाग में आए हुए 'हिन्दू' पद का ऐसा अर्थ लगाया जाएगा मानो उसके अन्तर्गत ऐसा व्यक्ति आता हो जो यद्यपि धर्मत: हिन्दू नहीं है, तथापि ऐसा व्यक्ति है जिसे यह अधिनियम इस धारा में अन्तर्विष्ट उपबन्धों के आधार पर लागू होता है।
4. परिभाषाएं-इस अधिनियम में,-
(क) "अप्राप्तवय" से वह व्यक्ति अभिप्रेत है जिसने अट्ठारह वर्ष की आयु पूरी न की हो,
(ख) "संरक्षक" से वह व्यक्ति अभिप्रेत है जिसकी देखरेख में किसी अप्राप्तवय का शरीर या उसकी सम्पति या उसकी शरीर और सम्पति दोनों हों और इसके अन्तर्गत आते हैं -
(i) नैसर्गिक संरक्षक,
(ii) अप्राप्तवय के पिता या माता की विल द्वारा नियुक्त संरक्षक,
(iii) न्यायालय द्वारा नियुक्त या घोषित संरक्षक, तथा
(iv) किसी प्रतिपाल्य अधिकरण से सम्बन्ध रखने वाली किसी अधिनियमिति के द्वारा या अधीन संरक्षक की हैसियत में कार्य करने के लिए सशक्त व्यक्ति;
(ग) "नैसर्गिक संरक्षक" से अभिप्रेत है धारा 6 में वर्णित संरक्षकों में से कोई भी संरक्षक।
5. अध्यारोही प्रभाव - इस अधिनियम में अभिव्यक्तत: उपबन्धित के सिवाय -
(क) हिन्दू विधि का कोई भी ऐसा शास्त्र-वाक्य, नियम, या निर्वचन, या उस विधि की भागरूप कोई भी रूढ़ि या प्रथा, जो इस अधिनियम के प्रारम्भ के अव्यवहित पूर्व रही हो ऐसे किसी भी विषय के बारे में, जिसके लिए इस अधिनियम में उपबन्ध किया गया है, प्रभावहीन हो जाएगी;
(ख) कोई भी ऐसी अन्य विधि जो इस अधिनियम के प्रारम्भ के अव्यवहित पूर्व प्रवृत्त रही हो वहां तक प्रभावहीन हो जाएगी जहां तक वह इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट उपबन्धों में से किसी से असंगत हो।
6. हिन्दू अप्राप्तवय के नैसर्गिक संरक्षक - हिन्दू अप्राप्तवय के नैसर्गिक संरक्षक अप्राप्तवय के शरीर के बारे में और (अविभक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति में उसके अविभक्त हित को छोड़कर) उसकी सम्पति के बारे में भी, निम्नलिखित हैं -
(क) किसी लड़के या अविवाहिता लड़की की दशा में पिता और उसके पश्चात् माता; परन्तु जिस अप्राप्तवय ने पाँच वर्ष की आयु पूरी न कर ली हो उसकी अभिरक्षा मामूली तौर पर माता के हाथ में होगी;
(ख) अधर्मज लड़के तथा अधर्मज अविवाहिता लड़की की दशा में माता और उसके पश्चात् पिता;
(ग) विवाहिता लड़की की दशा में पति ;
परन्तु जो भी व्यक्ति यदि —
(क) वह हिन्दू नहीं रह गया है; या
(ख) वह वानप्रस्थ या यति या संन्यासी होकर संसार को पूर्णत: और अन्तिम रूप से त्याग चुका है, तो इस धारा के उपबन्धों के अधीन अप्राप्तवय के नैसर्गिक संरक्षक के रूप में कार्य करने का हकदार न होगा ।
स्पष्टीकरण - इस धारा में 'पिता' और 'माता' पदों के अन्तर्गत सौतेला पिता और सौतेली माता नहीं आते।
7. दत्तक पुत्र के नैसर्गिक संरक्षक - ऐसे दत्तक पुत्र की, जो अप्राप्तवय हो, नैसर्गिक संरक्षकता दत्तकग्रहण पर दत्तक पिता को और उसके पश्चात् दत्तक माता को संक्रान्त हो जाती है।
8. नैसर्गिक संरक्षक की शक्तियाँ -
(1) इस धारा के उपबन्धों के अध्यधीन यह है कि किसी भी हिन्दू अप्राप्तवय का नैसर्गिक संरक्षक उन सब कार्यों को करने की शक्ति रखता है जो उस अप्राप्तवय के फायदे के लिए या उस अप्राप्तवय की सम्पदा के आपन, संरक्षण या फायदे के लिए आवश्यक या युक्तियुक्त और उचित हों, किन्तु संरक्षक किसी भी दशा में अप्राप्तवय को वैयक्तिक प्रसंविदा के द्वारा आबद्ध नहीं कर सकता।
(2) नैसर्गिक संरक्षक न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना -
(क) न तो अप्राप्तवय की स्थावर सम्पति के किसी भी भाग को बन्धक या भारित अथवा विक्रय, दान या विनिमय द्वारा या अन्यथा अन्तरित करेगा; और
(ख) न ऐसी सम्पति के किसी भी भाग को पाँच वर्ष से अधिक की अवधि के लिए या जिस तारीख की अप्राप्तवय प्राप्तवयता में प्रवेश करेगा उस तारीख से एक वर्ष से अधिक की अवधि के लिए पट्टे पर देगा।
(3) नैसर्गिक संरक्षक द्वारा उपधारा (1) या उपधारा (2) के उल्लंघन में किया गया स्थावर सम्पत्ति का कोई भी व्ययन, अप्राप्तवय की या उससे व्युत्पन्न अधिकार के अधीन दावा करने वाले किसी भी व्यक्ति की प्रेरणा पर शून्यकरणीय होगा।
(4) कोई भी न्यायालय नैसर्गिक संरक्षक की उपधारा (2) में वर्णित कार्यों में से किसी को भी करने की अनुज्ञा न देगा। सिवाय उस दशा में जब कि वह आवश्यक हो या अप्राप्तवय की सुव्यक्त भलाई के लिए हो।
(5) उपधारा (2) के अधीन न्यायालय की अनुज्ञा अभिप्राप्त करने के आवेदन को और उसके बारे में संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 सर्वथा ऐसे लागू होगा मानो वह आवेदन उस अधिनियम की धारा 29 के अधीन न्यायालय की अनुज्ञा अभिप्राप्त करने के लिए आवेदन हो, और विशिष्टत :-
(क) आवेदन से सम्बन्धित कार्यवाहियां उस अधिनियम के अधीन, उसकी धारा 4-क के अर्थ के भीतर कार्यवाहियां समझी जाएंगी;
(ख) न्यायालय उस प्रक्रिया का अनुपालन करेगा और उसे वे शक्तियां प्राप्त होंगी जो उस अधिनियम की धारा 31 की उपधाराओं (2), (3) और (4) में विनिर्दिष्ट हैं; तथा
(ग) न्यायालय के ऐसे आदेश की अपील, जो नैसर्गिक संरक्षक को इस धारा की उपधारा (2) में वर्णित कार्यों में से किसी भी कार्य को करने की अनुज्ञा देने से इन्कार करे, उस न्यायालय में होगी, जिसमें उस न्यायालय के विनिश्चयों की अपीलें मामूली तौर पर होती हैं।
(6) इस धारा में 'न्यायालय' से वह नगर सिविल न्यायालय या ऐसा जिला न्यायालय या संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 4क के अधीन सशक्त ऐसा न्यायालय अभिप्रेत है, जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर वह स्थावर सम्पति जिसके बारे में आवेदन किया गया है, स्थित हो और जहां कि स्थावर सम्पति में ऐसे एक से अधिक न्यायालयों की अधिकारिता के भीतर स्थित हो वहां वह न्यायालय अभिप्रेत है, जिसकी स्थानीय सीमाओं की अधिकारिता के भीतर उस सम्पत्ति का कोई भी प्रभाग स्थित हो।
9. वसीयती संरक्षक और उनकी शक्तियाँ -
(1) ऐसा हिन्दू पिता जो अपने अप्राप्तवय धर्मज अपत्यों के नैसर्गिक संरक्षक के तौर पर कार्य करने का हकदार हो, उनमें से किसी के लिए भी अप्राप्तवय के शरीर के या उस अप्राप्तवय की (धारा 12 में निर्दिष्ट अविभक्त हित से भिन्न) सम्पत्ति के या दोनों के बारे में विल द्वारा संरक्षक नियुक्त कर सकेगा।
(2) उपधारा (1) के अधीन की गई नियुक्ति प्रभावी नहीं होगी यदि पिता माता से पूर्व मर जाए किन्तु यदि माता विल द्वारा किसी व्यक्ति को संरक्षक नियुक्त किए बिना मर जाए तो वह नियुक्ति पुनरुजीवित हो जाएगी।
(3) ऐसी हिन्दू विधवा, जो अपने अप्राप्तवय धर्मज अपत्यों के नैसर्गिक संरक्षक के तौर पर कार्य करने की हकदार हो और ऐसी हिन्दू माता, जो अपने अप्राप्तवय धर्मज अपत्यों के नैसर्गिक संरक्षक के तौर पर कार्य करने की इस कारण हकदार हो कि पिता नैसर्गिक संरक्षक के तौर पर कार्य करने के लिए निर्हकित हो गया है, उनमें से किसी के लिए भी उस अप्राप्तवय के शरीर के या उस अप्राप्तवय के शरीर या (धारा 12 में निर्दिष्ट अविभक्त हित से भिन्न) सम्पत्ति के या दोनों के बारे में बिल द्वारा संरक्षक नियुक्त कर सकेगी।
(4) ऐसी हिन्दू माता, जो अपने अप्राप्तवय अधर्मज अपत्यों के नैसर्गिक संरक्षक के तौर पर कार्य करने की हकदार हो, उनमें से किसी के लिए भी, उस अप्राप्तवय के शरीर के या उस अप्राप्तवय की सम्पति के या दोनों के बारे में विल द्वारा संरक्षक नियुक्त कर सकेगी।
(5) विल द्वारा ऐसे नियुक्त किए गए संरक्षक को अधिकार है कि वह अप्राप्तवय के, यथास्थिति, पिता या माता की मृत्यु के पश्चात् अप्राप्तवय के संरक्षक के तौर पर कार्य करे और इस अधिनियम के अधीन नैसर्गिक संरक्षक के सब अधिकारों का, उस विस्तार तक और उन निबन्धनों के अध्यधीन, यदि कोई हो, जो इस अधिनियम और उस विल में विनिर्दिष्ट हों, प्रयोग करे।
(6) विल द्वारा ऐसे नियुक्त किए गए संरक्षक के अधिकार जहां कि अप्राप्तवय लड़की है, उसके विवाह हो जाने पर समाप्त हो जाएंगे।
10. सम्पत्ति के संरक्षक के तौर पर कार्य करने के लिए अप्राप्तवय की असमर्थता - अप्राप्तवय किसी भी अप्राप्तवय की सम्पति के संरक्षक के तौर पर कार्य करने के लिए अक्षम होगा।
11. वस्तुत: संरक्षक अप्राप्तवय की सम्पत्ति के बारे में संव्यवहार नहीं करेगा - इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के पश्चात् कोई भी व्यक्ति केवल इस आधार पर कि वह अप्राप्तवय का वस्तुत: संरक्षक है, उस हिन्दू अप्राप्तवय की सम्पत्ति का व्ययन या संव्यवहार करने का हकदार न होगा।
12. अविभक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति में अप्राप्तवय के अविभक्त हित के लिए संरक्षक का नियुक्त न किया जाना - जहां कि कोई अप्राप्तवय अविभक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति में अविभक्त हित रखता हो और वह सम्पत्ति कुटुम्ब के वयस्क सदस्य के प्रबन्ध के अधीन हो, वहां ऐसे अविभक्त हित के बारे में अप्राप्तवय के लिए कोई संरक्षक नियुक्त नहीं किया जाएगा :
परन्तु इस धारा की कोई भी बात ऐसे हित के बारे में संरक्षक नियुक्त करने की उच्च न्यायालय की अधिकारिता पर प्रभाव डालने वाली न समझी जाएगी।
13. अप्राप्तवय का कल्याण सर्वोपरि होगा -
(1) न्यायालय द्वारा किसी भी व्यक्ति के किसी हिन्दू अप्राप्तवय का संरक्षक नियुक्त या घोषित किए जाने में अप्राप्तवय के कल्याण पर सर्वोपरि ध्यान रखा जाएगा।
(2) यदि किसी भी व्यक्ति के विषय में न्यायालय की यह राय हो कि उसके संरक्षक होने में अप्राप्तवय का कल्याण न होगा तो वह व्यक्ति इस अधिनियम के उपबन्धों के आधार पर या ऐसी किसी भी विधि के आधार पर, जो हिन्दुओं में विवाहार्थ संरक्षकता के बारे में हो, संरक्षकता का हकदार न होगा।