Commission of Inquiry Act, 1952
No: 60 Dated: Aug, 14 1952
जांच आयोग अधिनियम, 1952
(1952 का अधिनियम संख्यांक 60)
[14 अगस्त, 1952]
जांच आयोगों की नियुक्ति के लिए तथा ऐसे आयोगों में
कतिपय शक्तियां निहित करने के लिए
उपबन्ध बनाने के लिए
अधिनियम
संसद् द्वारा निम्नलिखित रूप में यह अधिनियमित हो :
1. संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारम्भ - (1) यह अधिनियम जांच आयोग अधिनियम, 1952 कहा जा सकेगा।
(2) इसका विस्तार सम्पूर्ण भारत पर है :
परन्तु यह जम्मू-कश्मीर राज्य को केवल वहां तक लागू होगा, जहां तक उस राज्य को यथा लागू संविधान की सप्तम अनुसूची की सूची 1 या सूची 3 में प्रगणित प्रविष्टियों में से किसी से संबंधित विषयों के बारे में जांच से संबंधित हो।
(3) यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा, जिसे केन्द्रीय सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत करे।
2. परिभाषाएं - इस अधिनियम में जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो,
(क) “समुचित सरकार” से अभिप्रेत है -
(i) संविधान की सप्तम अनुसूची की सूची 1 या सूची 2 या सूची 3 में प्रगणित प्रविष्टियों में से किसी से सम्बन्ध योग्य किसी विषय की बाबत जांच करने के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त आयोग के सम्बन्ध में, केन्द्रीय सरकार; और
(ii) संविधान की सप्तम अनुसूची की सूची 2 या सूची 3 में प्रगणित प्रविष्टियों में से किसी से सम्बन्ध योग्य किसी विषय के बारे में जांच करने के लिए राज्य सरकार द्वारा नियुक्त आयोग के सम्बन्ध में, राज्य सरकार :
परन्तु जम्मू-कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में यह खण्ड इस उपान्तर के अधीन प्रभावी होगा कि -
(क) उसके उपखण्ड (i) में, “संविधान की सप्तम अनुसूची की सूची 1 या सूची 2 या सूची 3” शब्दों और अंकों के स्थान पर “जम्मू-कश्मीर राज्य को यथा लागू संविधान की सप्तम अनुसूची की सूची 1 या सूची 3' शब्द और अंक प्रतिस्थापित किए जाएंगे;
(ख) उसके उपखण्ड (ii) में, “संविधान की सप्तम अनुसूची की सूची 2 या सूची 3” शब्दों और अंकों के स्थान पर, “जम्मू-कश्मीर राज्य को यथा लागू संविधान की सप्तम अनुसूची की सूची 3” शब्द और अंक प्रतिस्थापित किए जाएंगे;
(ख) “आयोग” से धारा 3 के अधीन नियुक्त जांच आयोग अभिप्रेत है;
(ग) “विहित” से इस अधिनियम के अधीन बनाए गए नियमों द्वारा विहित अभिप्रेत है।
2क. जो विधियां जम्मू-कश्मीर राज्य में प्रवृत्त नहीं हैं उनके प्रति निर्देशों का अर्थान्वयन - इस अधिनियम में ऐसी किसी विधि के प्रति, जो जम्मू-कश्मीर राज्य में प्रवृत्त नहीं है, किसी निर्देश का उस राज्य के सम्बन्ध में यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह उस राज्य में लागू तत्स्थानी विधि के, यदि कोई हो, प्रति निर्देश है।
3. आयोग की नियुक्ति — (1) जैसा लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 (2014 का 1) में अन्यथा उपबंधित है उसके सिवाय, समुचित सरकार] राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, एक आयोग की नियुक्ति, सार्वजनिक महत्व के किसी निश्चित मामले की जांच करने तथा ऐसे कृत्यों को, और इतने समय के अंदर, जो अधिसूचना में विनिर्दिष्ट हो, करने के प्रयोजन के लिए उस दशा में, जिसमें उसकी यह राय है कि वैसा करना आवश्यक है, कर सकेगी और उस दशा में जिसमें [यथास्थिति, संसद् के प्रत्येक सदन या राज्य के विधान-मंडल] द्वारा इस निमित्त संकल्प पारित किया जाए, करेगी और ऐसे नियुक्त आयोग तदनुसार जांच करेगा और कृत्यों का पालन करेगा : परन्तु जहां किसी मामले की जांच के लिए ऐसे आयोग की नियुक्ति -
(क) केन्द्रीय सरकार द्वारा की गई है, वहां उसी मामले की जांच के लिए दूसरे आयोग की नियुक्ति केन्द्रीय सरकार के अनुमोदन के बिना कोई भी राज्य सरकार तब तक नहीं करेगी जब तक केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त आयोग कार्य कर रहा हो;
(ख) किसी राज्य सरकार द्वारा की गई है, वहां उसी मामले की जांच के लिए दूसरे आयोग की नियुक्ति केन्द्रीय सरकार तब तक जब तक कि राज्य सरकार द्वारा नियुक्त आयोग कार्य कर रहा हो, उस दशा के सिवाय नहीं करेगी जिसमें केन्द्रीय सरकार की राय है कि जांच की परिधि दो या अधिक राज्यों तक विस्तारित कर दी जानी चाहिए।
(2) आयोग में समुचित सरकार द्वारा नियुक्त एक या अधिक सदस्य हो सकेंगे और जहां आयोग में एक से अधिक सदस्य हों, वहां उनमें से एक उनका अध्यक्ष नियुक्त किया जा सकेगा।
(3) आयोग द्वारा जांच के किसी भी प्रक्रम में, समुचित सरकार, किसी ऐसी रिक्ति को भर सकेगी जो आयोग के किसी सदस्य के पद में हुई हो (चाहे आयोग में एक सदस्य हो या उससे अधिक)।
(4) समुचित सरकार, यथास्थिति, संसद् के प्रत्येक सदन या राज्य के विधान-मंडल के समक्ष, उपधारा (1) के अधीन आयोग द्वारा की गई जांच पर आयोग की रिपोर्ट, यदि कोई हो, उस पर की गई कार्यवाही के ज्ञापन सहित, आयोग द्वारा समुचित सरकार को रिपोर्ट के प्रस्तुत किए जाने से छह मास की कालावधि के अंदर, रखवाएगी।
4. आयोग की शक्तियां - निम्नलिखित बातों के बारे में, आयोग को वे शक्तियां प्राप्त होंगी, जो सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के अधीन वाद का विचारण करते समय सिविल न्यायालय को प्राप्त होती हैं, अर्थात् :-
(क) भारत के किसी भाग से किसी व्यक्ति को समन करना और हाज़िर कराना तथा शपथ पर उसकी परीक्षा करना;
(ख) किसी दस्तावेज़ को प्रकट ओर पेश करने की अपेक्षा करना;
(ग) शपथपत्रों पर साक्ष्य ग्रहण करना;
(घ) किसी न्यायालय या कार्यालय से कोई लोक-अभिलेख या उसकी प्रतिलिपि अपेक्षित करना; (ङ) साक्षियों या दस्तावेज़ों की परीक्षा के लिए कमीशन निकालना;
(च) कोई अन्य विषय जो विहित किया जाए।
5. आयोग की अतिरिक्त शक्तियां - (1) जहां समुचित सरकार की यह राय है कि की जाने वाली जांच के स्वरूप और मामले की अन्य परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए आयोग को उपधारा (2) या उपधारा (3) या उपधारा (4) या उपधारा (5) के उपबन्धों में से कोई लागू किए जाने चाहिएं, वहां समुचित सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, निदेश दे सकेगी कि उक्त सब उपबन्ध या उनमें से ऐसे जो अधिसूचना में विनिर्दिष्ट किए जाएं, उस आयोग को लागू होंगे और ऐसी अधिसूचना के जारी किए जाने पर उक्त उपबन्ध तदनुसार लागू होंगे।
(2) आयोग को किसी व्यक्ति से, किसी ऐसे विशेषाधिकार के अध्यधीन, जिसका उस व्यक्ति द्वारा तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन दावा किया जाए, ऐसी बातों या विषयों पर जानकारी देने की अपेक्षा करने की शक्ति होगी, जो आयोग की राय में जांच की विषय-वस्तु के लिए उपयोगी या उससे सुसंगत हों और जिस व्यक्ति से ऐसी अपेक्षा की जाए वह भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 176 और धारा 177 के अर्थ में ऐसी जानकारी देने के लिए वैध रूप से आबद्ध समझा जाएगा।
(3) आयोग या राजपत्रित अधिकारी की पंक्ति से नीचे न होने वाला कोई अधिकारी, जो आयोग द्वारा इस निमित्त विशेषतया प्राधिकृत किया जाए, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1898 (1898 का 5) की धारा 102 और धारा 103 के उपबन्धों के, जहां तक वे लागू हों, अध्यधीन किसी ऐसे भवन या स्थान में, जिसकी बाबत आयोग के पास यह विश्वास करने का कारण है कि जांच की विषयवस्तु से संबंधित कोई लेखा-बहियां या अन्य दस्तावेज वहां पाए जा सकते हैं, प्रवेश कर सकेगा और किन्हीं ऐसी लेखा-बहियों या दस्तावेजों को अभिगृहीत कर सकेगा अथवा उनसे उद्धरण या उनकी प्रतिलिपियां ले सकेगा।
(4) आयोग को सिविल न्यायालय समझा जाएगा और जब कोई ऐसा अपराध जैसा भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 175, धारा 178, धारा 179, धारा 180 या धारा 228 में वर्णित है आयोग की दृष्टिगोचरता में या उपस्थिति में किया जाता है तब आयोग अपराध गठित करने वाले तथ्यों और अभियुक्त के कथन को अभिलिखित करने के पश्चात्, जैसा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1898 (1898 का 5) में उपबंधित है, उस मामले को ऐसे मजिस्ट्रेट को भेज सकेगा जिसे उसका परीक्षण करने की अधिकारिता है, तथा वह मजिस्ट्रेट जिसे कोई ऐसा मामला भेजा जाता है, अभियुक्त के विरुद्ध परिवाद सुनने के लिए इस प्रकार अग्रसर होगा मानो वह मामला दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1898 की धारा 482 के अधीन उसको भेजा गया हो।
(5) आयोग के समक्ष किसी कार्यवाही को भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 193 और 228 के अर्थ में न्यायिक कार्यवाही समझा जाएगा।
5क. जांच से संबंधित अन्वेषण करने के लिए कतिपय अधिकारियों और अन्वेषण अभिकरणों की सेवाओं का उपयोग करने की आयोग की शक्ति - (1) आयोग, जांच से संबंधित अन्वेषण करने के प्रयोजनार्थ, निम्नलिखित की सेवाओं का उपयोग कर सकेगा:
(क) केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त आयोग की दशा में, यथास्थिति, केन्द्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार की सहमति से केन्द्रीय सरकार या उस राज्य सरकार का कोई अधिकारी या अन्वेषण अभिकरण: अथवा
(ख) राज्य सरकार द्वारा नियुक्त आयोग की दशा में, यथास्थिति, राज्य सरकार या केन्द्रीय सरकार की सहमति से राज्य सरकार या केन्द्रीय सरकार का कोई अधिकारी या अन्वेषण अभिकरण।
(2) जांच से संबंधित किसी विषय का अन्वेषण करने के प्रयोजनार्थ, कोई अधिकारी या अभिकरण, जिसकी सेवाओं का उपधारा (1) के अधीन उपयोग किया जा रहा है, आयोग के निदेश और नियंत्रण के अधीन रहते हुए
(क) किसी व्यक्ति को समन कर सकेगा और हाजिर करा सकेगा तथा उसकी परीक्षा कर सकेगा;
(ख) किसी दस्तावेज के प्रकटीकरण एवं पेश किए जाने की अपेक्षा कर सकेगा; तथा
(ग) किसी कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रतिलिपि की अपेक्षा कर सकेगा।
(3) धारा 6 के उपबन्ध किसी ऐसे अधिकारी या अभिकरण के समक्ष जिसकी सेवाओं का उपधारा (1) के अधीन उपयोग किया जाए, किसी व्यक्ति द्वारा किए गए कथन के संबंध में वैसे ही लागू होंगे जैसे वे आयोग के समक्ष साक्ष्य देने के अनुक्रम में किसी व्यक्ति द्वारा किए गए कथन के संबंध में लागू होते हैं।
(4) जिस अधिकारी या अभिकरण की सेवाओं का उपयोग उपधारा (1) के अधीन किया जाए वह जांच से संबंधित किसी विषय का अन्वेषण करेगा और उस पर ऐसी कालावधि के भीतर जो आयोग द्वारा इस निमित्त विनिर्दिष्ट की जाए, आयोग को रिपोर्ट (जिसे इस धारा में इसके पश्चात् अन्वेषण रिपोर्ट कहा गया है) देगा।
(5) आयोग उपधारा (4) के अधीन उसे दी गई अन्वेषण रिपोर्ट में कथित तथ्यों के तथा निकाले गए निष्कर्षों के, यदि कोई हों, सही होने के बारे में अपना समाधान करेगा और इस प्रयोजनार्थ आयोग ऐसी जांच (जिसके अन्तर्गत उस व्यक्ति की या उन व्यक्तियों की परीक्षा भी है जिसने या जिन्होंने अन्वेषण किया हो या उसमें सहायता की हो) कर सकेगा जो वह ठीक समझे ।
5ख. असेसर नियुक्त करने की आयोग की शक्ति – आयोग कोई जांच करने के प्रयोजन के लिए, जांच से संबद्ध किसी विषय का विशेष ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों को, जांच में, आयोग की सहायता करने और उसे सलाह देने के लिए, असेसरों के रूप में नियुक्त कर सकेगा और असेसर ऐसे यात्रा और अन्य खर्चों का हकदार होगा जो विहित किए जाएं।
6. आयोग के समक्ष व्यक्तियों द्वारा किए गए कथन - आयोग के समक्ष साक्ष्य देते हए किसी व्यक्ति द्वारा किया गया कोई कथन, ऐसे कथन द्वारा मिथ्या साक्ष्य देने के लिए अभियोजन के सिवाय उसे किसी सिविल या दाण्डिक कार्यवाही के अध्यधीन नहीं करेगा या उसमें उसके विरुद्ध प्रयुक्त नहीं किया जाएगा : परन्तु यह तब जबकि ऐसा कथन -
(क) ऐसे प्रश्न के उत्तर में दिया जाता है जिसका उत्तर देने के लिए उससे आयोग द्वारा अपेक्षा की जाए; या
(ख) जांच की विषय-वस्तु से सुसंगत है।
6क. माल के विनिर्माण की गुप्त प्रक्रिया को प्रकट करने के लिए व्यक्तियों का कतिपय मामलों में बाध्य न होना - उन मामलों के सिवाय जिनमें आयोग किसी माल के विनिर्माण की प्रक्रिया की जांच करने के लिए स्पष्टत: अपेक्षित हो, इस अधिनियम की किसी बात से यह न समझा जाएगा कि वह आयोग के समक्ष साक्ष्य देने वाले किसी व्यक्ति को उस माल के विनिर्माण की किसी गुप्त प्रक्रिया को प्रकट करने को विवश करती है।
7. आयोग का अस्तित्वहीन हो जाना जब वैसा अधिसूचित कर दिया जाए — (1) समुचित सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, घोषणा कर सकेगी
(क) कि, (यथास्थिति, संसद् के प्रत्येक सदन या राज्य के विधान-मंडल द्वारा, पारित संकल्प के अनुसरण में नियुक्त आयोग से भिन्न) कोई आयोग अस्तित्वहीन हो जाएगा, यदि उस सरकार की यह राय हो कि आयोग का अस्तित्वशील रहना आवश्यक है:
(ख) कि, यथास्थिति, संसद् के प्रत्येक सदन या राज्य के विधान-मंडल द्वारा, पारित संकल्प के अनुसरण में नियुक्त आयोग अस्तित्वहीन हो जाएगा यदि आयोग को समाप्त करने का संकल्प, यथास्थिति, संसद् के प्रत्येक सदन या राज्य के विधान-मंडल द्वारा, पारित कर दिया जाता है।
(2) उपधारा (1) के अधीन जारी की गई हर अधिसूचना में वह तारीख विनिर्दिष्ट होगी जबसे आयोग अस्तित्वहीन हो जाएगा और ऐसी अधिसूचना के जारी किए जाने पर, उसमें विनिर्दिष्ट तारीख से ही आयोग अस्तित्वहीन हो जाएगा।
8. आयोग द्वारा अनुसरणीय प्रक्रिया - आयोग को किन्हीं नियमों के जो इस निमित्त बनाए जाएं, अधीन रहते हए अपनी प्रक्रिया (जिसके अन्तर्गत उसकी बैठकों के स्थान और समय नियत करना तथा यह विनिश्चय करना भी है कि बैठकें खुली हों या प्राइवेट हों) स्वयं विनियमित करने की शक्ति होगी,
8क. आयोग में कोई रिक्ति या उसके गठन में परिर्वतन होने के कारण जांच में कोई विघ्न न पड़ना — (1) जहां आयोग में दो या दो से अधिक सदस्य हों वहां वह अध्यक्ष या किसी अन्य सदस्य को अनुपस्थिति या अपने सदस्यों में से किसी रिक्ति के होते हुए भी कार्य कर सकेगा।
(2) जहां आयोग के समक्ष जांच के दौरान, किसी रिक्ति के भरे जाने से या किसी अन्य कारण से आयोग के गठन में कोई परिवर्तन हो जाए वहां आयोग के लिए यह आवश्यक नहीं होगा कि वह जांच नए सिरे से प्रारम्भ करे और जांच उसी प्रक्रम से जारी रखी जा सकेगी जिस पर परिवर्तन हुआ हो।
8ख. उन व्यक्तियों की सुनवाई जिन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना सम्भाव्य हो - यदि जांच के किसी अनुक्रम में –
(क) आयोग किसी व्यक्ति के आचरण की जांच करना आवश्यक समझता है; या
(ख) आयोग की यह राय है कि जांच से किसी व्यक्ति की ख्याति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना सम्भाव्य है, तो आयोग उस व्यक्ति को जांच में सुनवाई और अपनी प्रतिरक्षा में साक्ष्य पेश करने का यथोचित असवर देगा :
परन्तु इस धारा की कोई बात वहां लागू नहीं होगी जहां किसी साक्षी की विश्वसनीयता पर अधिक्षेप किया जा रहा हो।
8ग. प्रतिपरीक्षा और विधि व्यवसायी द्वारा प्रतिनिधित्व का अधिकार - समचित सरकार, धारा 8ख में निर्दिष्ट प्रत्येक व्यक्ति और, आयोग की अनुज्ञा से कोई अन्य व्यक्ति, जिसका साक्ष्य आयोग द्वारा अभिलिखित किया जाता है—
(क) अपने द्वारा पेश किए गए साक्षी से भिन्न किसी साक्षी की प्रतिपरीक्षा कर सकेगा;
(ख) आयोग को संबोधित कर सकेगा; और
(ग) आयोग के समक्ष किसी विधि व्यवसायी द्वारा या आयोग की अनुज्ञा से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अपना प्रतिनिधित्व करा सकेगा।
9. सद्भावपूर्वक की गई कार्रवाई का परित्राण — कोई भी वाद या अन्य विधिक कार्यवाही किसी भी ऐसी बात के बारे में जो इस अधिनियम के या तद्धीन बनाए गए किन्हीं नियमों या आदेशों के अनुसरण में अथवा किसी रिपोर्ट, कागज या कार्यवाही के समुचित सरकार या आयोग द्वारा या उसके प्राधिकार के अधीन प्रकाशन के सम्बन्ध में सद्भावपूर्वक की गई हो या की जाने के लिए आशयित हो, समुचित सरकार, आयोग या उसके किसी सदस्य अथवा समुचित सरकार के या आयोग के निदेश के अधीन कार्य करने वाले किसी व्यक्ति के विरुद्ध न होगी।
10. सदस्यों आदि का लोक सेवक होना - आयोग का प्रत्येक सदस्य और इस अधिनियम के अधीन कृत्यों का निष्पादन करने के लिए आयोग द्वारा नियुक्त या प्राधिकृत प्रत्येक अधिकारी भारतीय दण्ड संहिता (1860 का 45) की धारा 21 के अर्थ में लोक सेवक समझा जाएगा।
10क. आयोग या उसके किसी सदस्य की बदनामी करने के लिए प्रकल्पित कार्यों के लिए शास्ति — (1) यदि कोई व्यक्ति या तो बोले गए या पढ़े जाने के लिए आशयित शब्दों द्वारा कोई ऐसा कथन करेगा या प्रकाशित करेगा या कोई ऐसा अन्य कार्य करेगा जो आयोग या उसके किसी सदस्य की बदनामी करने के लिए प्रकल्पित हो तो वह सादा कारावास से, जिसकी अवधि छह मास तक हो सकेगी या जुर्माने से, अथवा दोनों से, दण्डनीय होगा।
(2) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी, जब यह अभिकथित है कि उपधारा (1) के अधीन कोई अपराध किया गया है तब उच्च न्यायालय, ऐसा मामला उसे सुपुर्द हुए बिना ही, आयोग के किसी सदस्य द्वारा या आयोग द्वारा इस निमित्त प्राधिकृत उसके किसी अधिकारी द्वारा किए गए लिखित परिवाद पर, ऐसे अपराध का संज्ञान कर सकता है।
(3) उपधारा (2) में निर्दिष्ट प्रत्येक परिवाद में उन तथ्यों का जिनसे अभिकथित अपराध बनता है, ऐसे अपराध की प्रकृति का, और ऐसी अन्य विशिष्टियों का उल्लेख होगा जो अभियुक्त द्वारा किए गए अभिकथित अपराध की उसे सूचना देने के लिए युक्तियुक्त रूप से पर्याप्त हैं।
(4) कोई भी उच्च न्यायालय उपधारा (1) के अधीन किसी अपराध का संज्ञान तब तक नही करेगा जब तक कि परिवाद उस तारीख से, जिसको अपराध का किया जाना अभिकथित है, छह मास के भीतर नहीं किया जाता।
(5) उपधारा (1) के अधीन अपराध का संज्ञान करने वाला उच्च न्यायालय उस मामले का विचारण, मजिस्ट्रेट के न्यायालय के समक्ष पुलिस रिपोर्ट से भिन्न आधार पर संस्थित वारंट मामलों के विचारण की प्रक्रिया के अनुसार करेगा :
परन्तु ऐसे विचारण में आयोग के सदस्य की परिवादी के रूप में या अन्यथा वैयक्तिक हाजिरी अपेक्षित नहीं है।
(6) दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (1974 का 2) में किसी बात के होते हुए भी, उच्च न्यायालय के किसी निर्णय से उच्चतम न्यायालय में, तथ्य और विधि दोनों पर, अपील साधिकार की जा सकती है।
(7) उपधारा (6) के अधीन उच्चतम न्यायालय को प्रत्येक अपील, उस निर्णय की तारीख से, जिससे अपील की गई है, तीस दिन की अवधि के भीतर की जाएगी :
परन्तु उच्चतम न्यायालय उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति के पश्चात् भी अपील ग्रहण कर सकता है यदि उसका यह समाधान हो जाता है कि अपीलार्थी के पास तीस दिन की अवधि के भीतर अपील न करने के लिए पर्याप्त कारण था।
11. कतिपय परिस्थतियों में अधिनियम का अन्य जांच प्राधिकारणों को लागू होना — जहां (किसी भी नाम से ज्ञात) कोई प्राधिकरण, जो धारा 3 के अधीन नियुक्त आयोग से भिन्न है, सार्वजनिक महत्व के किसी निश्चित मामले की जांच करने के प्रयोजन के लिए समुचित सरकार के किसी संकल्प या आदेश द्वारा बनाया गया है या बनाया जाता है और उस सरकार की यह राय है कि इस अधिनियम के सब या कोई उपबन्ध उस प्राधिकारण को लागू किए जाने चाहिए वहां वह सरकार, धारा 3 की उपधारा (1) के परन्तुक में अन्तर्विष्ट प्रतिषेध के अधीन, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, निदेश दे सकेगी कि इस अधिनियम के उक्त उपबंध इस प्राधिकरण को लागू होंगे, और ऐसी अधिसूचना के जारी होने पर वह प्राधिकरण इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए धारा 3 के अधीन नियुक्त आयोग समझा जाएगा।
12. नियम बनाने की शक्ति - (1) समुचित सरकार इस अधिनियम के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए नियम, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, बना सकेगी।
(2) विशिष्टियता और पूर्वगामी शक्ति की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना ऐसे नियम निम्नलिखित सब विषयों या उनमें से किसी के लिए उपबन्ध कर सकेंगे, अर्थात् :-
(क) आयोग के सदस्यों की पदावधि और सेवा की शर्ते;
(ख) वह रीति जिसमें इस अधिनियम के अधीन जांच की जा सकेगी और आयोग द्वारा अपने समक्ष कार्यवाहियों के सम्बन्ध में अनुसरण की जाने वाली प्रक्रिया;
(ग) सिविल न्यायालय की वे शक्तियां जो आयोग में निहित हो सकेगी;
(गग) धारा 5ख के अधीन नियुक्त असेसरों को और आयोग द्वारा साक्ष्य देने के लिए या उसके समक्ष दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए, समन किए गए व्यक्तियों को संदेय यात्रा और अन्य खर्चे ।
(घ) कोई अन्य विषय जो विहित किया जाना है या किया जाए।
(3) इस धारा के अधीन केन्द्रीय सरकार द्वारा बनाए गया प्रत्येक नियम, बनाए जाने के पश्चात् यथाशीघ्र, संसद् के प्रत्येक सदन के समक्ष, जब वह सत्र में हो कुल तीस दिन की अवधि के लिए रखा जाएगा। यह अवधि एक सत्र में अथवा दो या अधिक आनुक्रमिक सत्रों में पूरी हो सकेगी। यदि उस सत्र के या पूर्वोक्त आनुक्रमिक सत्रों के ठीक बाद के सत्र के अवसान के पूर्व दोनों सदन उस नियम में कोई परिवर्तन करने के लिए सहमत हो जाएं तो तत्पश्चात् वह ऐसे परिवर्तित रूप में ही प्रभावी होगा। यदि उक्त अवसान के पूर्व दोनों सदन सहमत हो जाएं कि वह नियम नहीं बनाया जाना चाहिए तो तत्पश्चात् वह ऐसे परिवर्तित रूप में ही प्रभावी होगा। यदि उक्त अवसान के पूर्व दोनों सदन सहमत हो जाएं कि वह नियम नहीं बनाया जाना चाहिए तो तत्पश्चात् वह निष्प्रभाव हो जाएगा। किन्तु नियम के ऐसे परिवर्तित या निष्प्रभाव होने से उसके अधीन पहले की गई किसी बात की विधिमान्यता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।
(4) इस धारा के अधीन राज्य सरकार द्वारा बनाया गया प्रत्येक नियम, बनाए जाने के पश्चात् यथाशीघ्र, राज्य विधान-मंडल के समक्ष रखा जाएगा
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